फतेह लाइव, रिपोर्टर.

“देश में 1984 की त्रासदी से बढ़कर सिखों के लिए कोई दर्द नहीं है, जिसके लिए कोई मरहम हो. इस दंगे में मैंने जो देखा है, उसकी कामना भी नहीं कर सकते. मैं उस समय खुद टाटा अमृतसर ट्रेन में था और कानपुर से लेकर पतरातु रामगढ़ तक मैंने जो नरसंहार देखा है, उसे याद कर आज भी रूह कांप जाती है. दंगों का दाग़ कांग्रेस के दामन पर लगा और एक कौम भी बदनाम हुई, लेकिन परिस्थितियां कुछ और ही बयां कर रही थीं जिसे राजनीतिक दल आज तक भंजा रहे हैं”.

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उक्त बातें अपने व्यापार को खोकर फिर से खड़े होने वाले दंगा पीड़ित सरदार इंदरजीत सिंह कालरा ने आज वरिष्ठ पत्रकार प्रीतम सिंह भाटिया से विशेष मुलाकात पर दिल्ली के कंस्टयुशन क्लब में कहीं. वर्तमान में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और अविभाजित बिहार में अल्पसंख्यक आयोग के लगातार तीन टर्म चैयरमैन रहे इंदरजीत सिंह कालरा दिल्ली में पिछले एक महीने से लगातार कांग्रेस पार्टी में सिखों के लिए विधानसभा टिकट की मांग कर रहे हैं. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के खास माने जाते कालरा लगातार राजद और कांग्रेस से गठबंधन धर्म का पालन करते हुए सिख प्रत्याशी घोषित करने की मांग कर रहे हैं.

कालरा इस मामले में झारखंड के न सिर्फ सिखों और मुसलमानों बल्कि पंजाबी समाज को भी जागरूक करते आ रहे हैं कि जमशेदपुर या रांची से किसी स्थानीय समाजसेवी सिख को प्रत्याशी बनाया जाए. कांग्रेस में रहते हुए भी वे ऐसा अन्य पार्टियों से भी लगातार बयान जारी करते हुए कह रहे हैं कि सिखों को उनके त्याग और बलिदान के आधार पर झारखंड से लोकसभा, राज्यसभा और वर्तमान में 2024 में विधानसभा चुनाव में बतौर प्रत्याशी उतारा जाए.

एक सवाल के जवाब में कालरा कहते हैं कि सिखों को बिहार राज्य में तो सम्मान मिला, लेकिन झारखंड बनने के बाद कांग्रेस पार्टी ने सिखों को सिर्फ अल्पसंख्यक आयोग तक ही सीमित रखा जो पार्टी के लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण है. उन्होने कहा कि इंडिया गठबंधन को चाहिए कि जमशेदपुर में अल्पसंख्यक आबादी को ध्यान में रखते हुए पूरब या पश्चिम विधानसभा क्षेत्र से एक स्थानीय सिख को टिकट दे.

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उन्होंने कहा कि इंदर सिंह नामधारी को राजद सुप्रीमो ने लोकसभा और मुझे पूर्वी विधानसभा से प्रत्याशी बनाकर पूरे अविभाजित बिहार में सिखों को सम्मान देने का काम किया था. कालरा ने कहा कि 1984 के मुआवजे की लंबी लड़ाई में मेरी भूमिका को देखते हुए 1986 में गुरूजी शिबू सोरेन ने मुझे लालू यादव से मिलवाया था. जहां से मेरे राजनीतिक सफर की शुरुआत हुई और मैं अल्पसंख्यक आयोग में उपाध्यक्ष बनाया गया. लगातार तीन टर्म तक आयोग में दायित्वों का निर्वाह करते हुए अलग राज्य बनने के बाद मैंने 2001 में इस्तीफा दे दिया था.

कालरा राजद से जमशेदपुर पूर्वी से रघुवर दास के खिलाफ भी चुनाव लड़ चुके हैं. वे कहते हैं कि राजद ने मुझे न सिर्फ आयोग में रखा, बल्कि विधानसभा प्रत्याशी भी बनाया जो दूसरे दलों के लिए प्रेरणा का काम करती है, लेकिन झारखंड बनने के बाद राजनीतिक दलों ने सिखों को केवल इस्तेमाल ही किया है. कालरा कहते हैं कि मुझे और इंदर सिंह नामधारी को राजद ने जो सम्मान दिया वह अब तक किसी पार्टी ने नहीं दिया है. वे कहते हैं कि ज़रूरी नहीं कि हर प्रत्याशी जीते लेकिन किसी भी व्यक्ति को टिकट देने का मतलब है पार्टी ने उस व्यक्ति उसके पद और उसकी जाति का भी सम्मान किया है क्योंकि जीत और हार कार्यकताओं पर भी निर्भर है न कि केवल प्रत्याशी पर.

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