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राष्ट्रपति भवन के ऐतिहासिक प्रांगण में बुधवार को एक और इतिहास रचा गया। जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई ने देश के 52वें मुख्य न्यायाधीश (CJI) के रूप में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की उपस्थिति में शपथ ली। यह केवल एक औपचारिक शपथ नहीं थी, बल्कि भारतीय लोकतंत्र और संविधान में विश्वास रखने वाले करोड़ों लोगों के लिए उम्मीद और गर्व का क्षण था। जस्टिस गवई इस सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहले बौद्ध समुदाय से आने वाले न्यायाधीश हैं और अनुसूचित जाति समुदाय से इस पद तक पहुंचने वाले दूसरे व्यक्ति हैं। उनसे पहले के.जी. बालकृष्णन इस प्रतिष्ठित पद पर रहे थे। उनकी यह नियुक्ति न केवल न्यायपालिका में समावेशिता की दिशा में एक मजबूत कदम है, बल्कि यह संविधान के सामाजिक न्याय के आदर्शों की व्यावहारिक अभिव्यक्ति भी है।

24 नवंबर 1960 को महाराष्ट्र के अमरावती में जन्मे जस्टिस गवई ने नगरपालिका स्कूल से पढ़ाई की। उन्होंने अपने एक भाषण में भावुक होकर कहा था, “यह केवल डॉ. बी.आर. अंबेडकर के प्रयासों के कारण है कि मेरे जैसे व्यक्ति, जो एक नगरपालिका स्कूल में पढ़ा, आज इस पद पर पहुंच सका।” जब उन्होंने “जय भीम” के नारे के साथ अपना भाषण समाप्त किया था, पूरा सभागार तालियों से गूंज उठा। जस्टिस गवई 24 मई 2019 को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश नियुक्त हुए। अपने कार्यकाल में वे अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण, और चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक ठहराने जैसे ऐतिहासिक फैसलों का हिस्सा रहे। उनकी न्यायिक दृष्टि में संविधान की मूल भावना, सकारात्मक कार्रवाई और सामाजिक समानता की गूंज स्पष्ट सुनाई देती है।

हालांकि जस्टिस गवई का कार्यकाल मुख्य न्यायाधीश के रूप में महज छह महीने का होगा — वे 23 नवंबर 2025 को 65 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होंगे — लेकिन इस अवधि में उनका पदभार संविधान की समावेशी आत्मा को पुनः प्रतिष्ठित करने वाला माना जा रहा है। आजादी के बाद से अब तक सुप्रीम कोर्ट में SC/ST समुदाय से मात्र सात न्यायाधीश ही पहुंचे हैं। ऐसे में जस्टिस गवई की यह नियुक्ति न केवल एक व्यक्ति की उपलब्धि है, बल्कि यह सामाजिक न्याय, समान अवसर और संवैधानिक मूल्यों की जीत है।

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