राजा सिर्फ राज्य बनाते हैं,ऋषियों के सांस्कृतिक अवदान से बनता है राष्ट्र
प्रो. संजय द्विवेदी की कलम से.
देश में इन दिनों राष्ट्रवाद चर्चा और बहस के केंद्र में है. ऐसे में यह जरूरी है कि हम भारतीय राष्ट्रवाद पर एक नई दृष्टि से सोचें और जानें कि आखिर भारतीय भावबोध का राष्ट्रवाद क्या है? ‘राष्ट्र’ सामान्य तौर पर सिर्फ भौगोलिक नहीं बल्कि ‘भूगोल-संस्कृति-लोग’ के तीन तत्वों से बनने वाली इकाई है. इन तीन तत्वों से बने राष्ट्र में आखिर सबसे महत्वपूर्ण तत्व कौन सा है? जाहिर तौर पर वह ‘लोग’ ही होगें. इसलिए लोगों की बेहतरी,भलाई, मानवता का स्पंदन ही किसी राष्ट्रवाद का सबसे प्रमुख तत्व होना चाहिए.
जब हम लोगों की बात करते हैं तो भौगोलिक इकाईयां टूटती हैं. अध्यात्म के नजरिए से पूरी दुनिया के मनुष्य एक हैं. सभी संत, आध्यात्मिक नेता और मनोवैज्ञानिक भी यह मानने हैं कि पूरी दुनिया पर मनुष्यता एक खास भावबोध से बंधी हुयी है. यही वैश्विक अचेतन (कलेक्टिव अनकांशेसनेस) हम-सबके एक होने का कारण है. स्वामी विवेकानंद इसी बात को कहते थे कि इस अर्थ में भारत एक जड़ भौगोलिक इकाई नहीं है. बल्कि वह एक चेतन भौगोलिक इकाई है जो सीमाओं और सैन्य बलों पर ही केंद्रित नहीं है. भारतीय राष्ट्रवाद मनुष्य के विस्तार व विकास पर केंद्रित है, जिसे भारत ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ कहकर संबोधित किया.
यह ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ राजनीतिक सत्ता का उच्चार नहीं है. उपनिषद् का उच्चार है. सारी दुनिया के लोग एक परिवार, एक कुटुम्ब के हैं, इसे समझना ही दरअसल भारतीय राष्ट्रवाद को समझना है. यह राष्ट्रवाद मनुष्य की सांस्कृतिक एकता के विस्तार का प्रतीक है और हमारे सांस्कृतिक मूल्य, मानववादी सांस्कृतिक मूल्यों पर केंद्रित है. हमारी भारतीय अवधारणा में राज्य निर्मित भौगोलिक-प्रशासनिक इकाईयां प्रमुख स्थान नहीं रखतीं बल्कि हमारी चेतना, संस्कृति, मूल्य आधारित जीवन और परंपराएं ही यहां हमें राष्ट्र बनाती हैं.
हमारे सांस्कृतिक इतिहास की ओर देखें तो आर्यावर्त की सीमाएं कहां से कहां तक विस्तृत हैं, जबकि सच यह है कि इस पूरे भूगोल पर राज्य बहुत से थे, राजा अनेक थे- किंतु हमारा सांस्कृतिक अवचेतन हमें एक राष्ट्र का अनुभव कराता था. एक ऐतिहासिक सत्य यह भी यह है कि हमारा राष्ट्रवाद दरअसल राज्य संचालित नहीं था. वह समाज और बौद्धिक चेतना से संपन्न संतों, ऋषियों द्वारा संचालित था. वह राष्ट्रवाद इस व्यापक भूगोल की चेतना में समाया हुआ था. यहां का ज्ञान विस्तार जिस तरह चारों दिशाओं में हुआ,वह बात हैरत में डालती है. राजा सिर्फ राज्य बनाते हैं,ऋषि अपने सांस्कृतिक अवदान से राष्ट्र बनाते हैं.
आप देखें तो बुद्ध पूरी दुनिया में अपने संदेश को यूं ही नहीं फैला पाए, बल्कि उस ज्ञान में एक ऐसा नवाचार, नवचेतन था जिसे दुनिया ने स्वतः आगे बढकर ग्रहण किया. भारत कई मायनों में अध्यात्म और चेतना की भूमि है, सच कहें तो दुनिया की तमाम स्थितियों से भारत एक अलग स्थिति इसलिए पाता है, क्योंकि यह भूमि संतों के लिए, ज्ञानियों के लिए उर्वर भूमि है. दुनिया के तमाम विचारों की सांस्कृतिक चेतना जड़वादी है, जबकि भारत की चेतना जैविक है, इसलिए भारत मरता नहीं है, क्योंकि वह जड़वादी और हठवादी नहीं है.
यहां का मनुष्य सांस्कृतिक एकता के लिए तो खड़ा होता है पर विचारों में जड़ता आते ही उससे अलग हो जाता है. हमारा ईश्वर आंतरिक उन्नयन और पाप क्षय के लिए काम करता है. हमारे संत भी आध्यात्मिक उन्नयन और पापों के क्षय के लिए काम करते हैं. मनुष्य की चेतना का आत्मिक विस्तार ही इस राष्ट्रवाद लक्ष्य है. इसलिए यह सिर्फ एक खास भूगोल, एक खास विचारधारा और पूजा पध्दति में बंधे लोगों के उद्धार के लिए नहीं, बल्कि समूची मानवता की मुक्ति के काम करने वाला यह विचार है. यहां मानव की मुक्ति ही उसका लक्ष्य है. यह राष्ट्रवाद सैन्यबल और व्यापार बल से चालित नहीं है, बल्कि यह चेतना के विस्तार, उसके व्यापक भावबोध और मनुष्य मात्र की मुक्ति का विचार से अनुप्राणित है.
भारतीय संदर्भ में राष्ट्रवाद को समझना वास्तव में मानवतावाद के व्यापक परिप्रेक्ष्य को समझना है. यह विचार कहता है- “ संतों को सीकरी से क्या काम” और फिर कहता है ‘’कोई नृप होय हमें क्या हानि”. इस मायने में हम राज या राज्य पर निर्भर रहने वाले समाज नहीं थे. राजा या राज्य एक व्यवस्था थी, किंतु जीवन मुक्त था-मूल्यों पर आधारित था. पूरी सांस्कृतिक परंपरा में समाज ज्यादा ताकतवर था और स्वाभिमान के साथ उदार मानवतावाद और एकात्म मानवदर्शन पर आधारित जीवन जीता था. वह चीजों को खंड-खंड करके देखने का अभ्यासी नहीं था, इसलिए इस राष्ट्रवाद में जो समाज बना, वह राजा केंद्रित नहीं, संस्कृति केंद्रित समाज था, जिसे अपने होने-जीने की शर्तें पता थीं, उसे उसके कर्तव्य ज्ञात थे. उसे राज्य की सीमाएं भी पता थीं और अपनी मुक्ति के मार्ग भी पता थे.
इस समाज में गुणता की स्पर्धा थी- इसलिए वह एक सुखी और संपन्न समाज था. इस समाज में भी बाजार था, किंतु समाज- बाजार के मूल्यों पर आधारित नहीं था. आनंद की सरिता पूरे समाज में बहती थी और आध्यात्मिकता के मूल्य जीवन में रसपगे थे. भारतीय समाज जीवन अपनी सहिष्णुता के नाते समरसता के मूल्यों का पोषक है, इसीलिए तमाम धाराएं,विचार,वाद और पंथ इस देश की हवा-मिट्टी में आए और अपना पुर्नअविष्कार किया, नया रूप लिया और एकमेक हो गए. भारतीयता हमारे राष्ट्रवाद का अनिवार्य तत्व है. भारतीयता के माने ही है स्वीकार। दूसरों को स्वीकार करना और उन्हें अपनों सा प्यार देना. यह राष्ट्रवाद विविधता को साधने वाला, बहुलता को आदर देने वाला और समाज को सुख देने वाला है. इसी नाते भारत का विचार आक्रामकता का, आक्रामण का, हिंसा या अधिनायकवाद का विचार नहीं है. यह श्रेष्ठता को आदर देने वाली,विद्वानों और त्यागी जनों को पूजने वाली संस्कृति है. अपने लोकतत्वों को आदर देना ही यहां राष्ट्रवाद है, इसलिए यहां भूगोल का विस्तार नहीं, मनों और दिलों को जीतने की संस्कृति यहां जगह पाती है.
यहां शांति है, सुख है, आनंद है और वैभव है. यह देकर, छोड़कर और त्यागकर मुक्त होती है. समेटना यहां ज्ञान को है, संपत्ति, जमीन और वैभव को नहीं, इसलिए फकीरी यहां आदर पाती है और सत्ताएं लांछन पाती हैं. इसलिए यहां लोकसत्ता का भी मानवतावादी होना जरूरी है. यहां सत्ता विचारों से, कार्यों से और आचरण से लोकमानस का विचार करती है तो ही सम्मानित होती है. वैसे भी भारतीय समाज एक सत्ता निरपेक्ष समाज है. वह सत्ताओं की परवाह न करने वाला स्वाभिमानी समाज है. इसलिए उसने जीवन की एक अलग शैली विकसित की है, जो उसके राष्ट्रवाद ने उसे दी है. यही स्वाभिमान एक नागरिक का भी है और राष्ट्र का भी. इसलिए वह अपने अध्यात्म के पास जाता है, अपने लोक के पास जाता है और सत्ता या राज्य के चमकीले स्वप्न उसे रास नहीं आते. इसी राष्ट्र तत्व को खोजते हुए राजपुत्र सत्ता को छोड़कर वनों, जंगलों में जाते रहे हैं, ज्ञान की खोज में,सत्य की खोज में, लोक के साथ सातत्य और संवाद के लिए. राम हों, कृष्ण हों, शिव हों, बुद्ध हों, महावीर हों- सब राजपुत्र हैं, संप्रुभ हैं और सब राज के साथ समाज को भी साधते हैं और अपनी सार्थकता साबित करते हैं. इसलिए भारतीय जमीन का राष्ट्रवाद एक अलग कथा है, उसे पश्चिमी पैमानों से नापना गलत होगा. आज इस वक्त जब भारतीय राष्ट्रवाद की अनाप-शनाप व्याख्या हो रही है, हमें ठहरकर सोचना होगा कि क्या सच में हममें अपने राष्ट्र की थोड़ी भी समझ बची है?
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के आचार्य और अध्यक्ष हैं)