रत्नाकर सिंह की कलम से.
बिहार चुनाव .. किसके सर सजेगा ताज, कौन बनेगा विपक्ष का सिरमौर, किसकी चलेगी नीतियां और किसको करना पड़ेगा विरोध, यह तो आगामी 14 नवंबर को मतों की गणना के बाद ही स्पष्ट होगा, लेकिन जहां तक आकलन का प्रश्न है, मेरा आकलन यह कहता है कि राजनीति में कोई अछूत नहीं होता और राजनीति में किसी से परहेज नहीं होता। यह मंत्र जिसने जाना वह राजनीति में कभी विफल नहीं होता।
बिहार में वर्तमान में दो घटक चुनाव मैदान में आमने-सामने है। एक तरफ है भाजपा के साथ नीतीश के जनता दल यूनाइटेड,मांझी का हम और कुशवाहा की आरएलएम और चिराग की लोजपा का एनडीए गठबंधन तो दूसरी तरफ है बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू के पुत्र और पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव की राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और सहनी की VIP के साथ वामपंथी दल।
दोनों पार्टियों में सीटों को लेकर काफी खींचतान मची। नामांकन तक दोनों ही गठबंधनों ने अपने मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया था। लेकिन अब महागठबंधन ने सर्वसम्मत से अपना नेता और मुख्यमंत्री का चेहरा तेजस्वी यादव को घोषित कर दिया वही एनडीए में में अभी भी चुनाव के बाद बहुमत आने पर विधायकों द्वारा मुख्यमंत्री चुनने की बात ही कहीं जा रही है।
यह कहीं ना कहीं शंका पैदा कर रही है कि अगर एनडीए गठबंधन चुनाव भारतीय है तो ठीकरा नीतीश केसर फोड़ा जा सकता है वही भाजपा चुनाव परिणाम में खुद का आकलन करना चाहती है और अगर उसके पास जरा भी गुंजाइश बची तो वह नीतीश को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट ना करके किसी अन्य को करेगी और उनके दल को छिन्न भिन्न भी कर सकती है।
अब महा गठबंधन पूरे दमखम के साथ तेजस्वी को मुख्यमंत्री और सहनी को उपमुख्यमंत्री बनाने के लिए जुट चुकी है। हालांकि लालू यादव के बड़े पुत्र तेज प्रताप यादव अपनी जनशक्ति जनता दल के साथ राजद के वोटो में चेंज लगाने के लिए बेचैन नजर आ रहे हैं।
सत्ता के इस खेल में प्रशांत किशोर का दखल कहीं से अनदेखा नहीं किया जा सकता है। यह सच है कि शायद वह अपने दम पर सत्ता के शीर्ष तक न पहुंच पाए, लेकिन उनके द्वारा दोनों ही गठबंधनों को क्षति पहुंचाने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता।
अब आइए सत्ता के समीकरण को और संभावनाओं को तलाशा जाए। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और भारतीय जनता पार्टी कमोबेश बराबर की ताकत में नजर आती है। 2020 के चुनाव में भी दोनों लगभग एक बराबर सीटों पर जीत हासिल किए थे। राजद को ७५ तो भाजपा को ७४ सीटें मिली थीं। भाजपा ने अभी तक मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया है, ऐसे में यह माना जा रहा है कि भाजपा के साथ एनडीए के अन्य सहयोगी दल आरएलएम, चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और हम मिला कर भाजपा को 142 के प्रत्याशी आंकड़े तक पहुंचा देती है, जबकि जनता दल यूनाइटेड मात्र 101 सीटों पर ही चुनाव लड़ रही है।
ऐसा लगता है कि भाजपा संभावना देख रही है कि 14 नवंबर को अगर भाजपा, हम, आरएलएम और चिराग की पार्टी मिलकर 122 के जादुई आंकड़े को छू लेती है तो फिर उन्हें नीतीश की आवश्यकता नहीं रह जाएगी और नीतीश की बाध्यता होगी कि वह एनडीए के गठबंधन में बने रहकर किसी प्रकार सत्ता में शरिक रहे।
लेकिन अगर कहीं भाजपा और उसके अन्य सहयोगी दल 100 और 110 के बीच में उलझ जाते हैं और नीतीश के पास सत्ता के शीर्ष पर जाने का दम आ जाता है तो बीजेपी कभी नहीं चाहेगी कि चाचा और भतीजा एक बार फिर मिल जाएं और राष्ट्रीय जनता दल सत्ता में आए।
ऐसे में वह बड़े प्रेम से नीतीश के गले मिलकर उन्हें मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर देगी। वहीं दूसरी ओर अगर तेजस्वी के महागठबंधन ने अपने दम पर 12 2 जीत प्राप्त कर ली तो उनकी सत्ता निर्विरोध बनेगी। ऐसे में यहां भाजपा से उन्हें बहुत सतर्क रहना पड़ेगा क्योंकि तब भाजपा भी उनके पीछे पीछे ही रहेगी और भाजपा के लिए किसी पार्टी को तोड़ देना कोई बहुत कठिन नहीं नजर आता है।
बिहार में सत्ता के गणित को बहुत हद तक प्रशांत किशोर ने उलझा कर रख दिया है और यह भी सच है कि शहरी क्षेत्र में वह भाजपा को ज्यादा क्षति पहुंचा सकते हैं। पिछड़ों और अति पिछड़ों के मतों को लेकर जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल में कसमकश तेज होगी। लेकिन नीतीश को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित न किए जाने से उनके सहयोगियों में अगर इस बात का जरा भी आक्रोश पनप गया तो भाजपा के लिए एक बार फिर दिल्ली दूर हो रहेगी। शायद इसी को ध्यान में रखते हुए अपनी चुनावी जनसभा में तेजस्वी नीतीश के प्रति बहुत आक्रामक नजर नहीं आ रहे हैं।
मुझे लगता है कि कहीं ना कहीं महागठबंधन को थोड़ी बढ़त मिल रही है। भाजपा उनसे बहुत पीछे नहीं है। अब प्रशांत किशोर का प्रदर्शन और फिर 14 के बाद क्या प्रशांत किशोर भाजपा के साथ जा सकते हैं या प्रशांत किशोर महागठबंधन के साथ जा सकते हैं? क्योंकि इन दोनों ही दलों के प्रमुख नेताओं पर प्रशांत किशोर ने अपनी तरकश से भ्रष्टाचार में लिप्तता के तमाम तीर छोड़े हैं …तो क्या उनको दोनों गठबंधन में से कोई एक गठबंधन अपने में समाहित कर पाएगा, यक्ष प्रश्न यही है।
कहा जा सकता है कि सत्ता के शीर्ष से नीतीश को नकारा नहीं जा सकता। पिछले दो चुनाव में उनके दल बदलने की प्रक्रिया से भाजपा निश्चित तौर पर सचेत रहेगी तो महागठबंधन भी आशा की डोर को थाम कर ही बैठी हैं । ऐसे में एक छोटी सी फुंसी की तरह प्रशांत किशोर दोनों गठबंधनों को कितना दर्द देंगे और किसको मलहम लगाएंगे यह देखना भी काफी रोचक होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार सह वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)


