पाठक की पाती

तकनीक, डिजिटल मीडिया और एआई के इस युग में अपनी बात को समाज तक पहुंचाने के लिए कई रास्ते खुल गये हैं. यह माध्यम पहले तक सिर्फ अखबार हुआ करते थे. लेकिन अखबार में काम करने वालों के नैतिक मूल्यों में धीरे-धीरे आ रही गिरावट, जन अपेक्षा की बातों को दरकिनार कर अपनी बात थोपने की चल पड़ी परंपरा के कारण लोगों का मोह व विश्वास धीरे-धीरे इनसे भंग होता गया. हालांकि अविश्वास के इस माहौल में अब भी कई अखबार अपने नैतिक मूल्यों के साथ सच के लिए मजबूती से खड़े होने का साहस दिखा रहे हैं.

खैर… हम बात कर रहे थे प्रभात खबर जमशेदपुर के संपादक जी की जिन्होंने एक न्यूज पोर्टल फतेह लाइव पर चल रही खबरों पर अपनी पीड़ा जाहिर की. बताया कि इस पोर्टल ने उनकी सामाजिक हत्या की सुपारी ली है. मन विरक्त हो गया है. संजय जी ने अपने इस पोस्ट के माध्यम से जनसहानुभूति बटोरने का भरपूर प्रयास किया. भान रहे कि माननीय संपादक जी ने भी अपनी पीड़ा रखने के लिए भी उसी मंच (सोशल मीडिया) को चुना है. हालांकि बाद में उन्होंने कुछ तकनीकी कारणों का हवाला देकर अपना पोस्ट हटा लिया. (यह विदित हो कि कानूनी मामला आने पर यह सब कुछ फिर से फेसबुक व गुगल से वापस पाया जा सकता है.) मैं भी उस पोस्ट को पढ़ रहा था. प्रभात खबर के संपादक संजय जी की करुण पुकार से दिल भर आया … आंसू छलक पड़े … असहनीय है यह पीड़ा. दुष्ट है ऐसे लोग जो इस महान व्यक्ति की आत्मा को असहनीय पीड़ा दे रहे.

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यह पीड़ा उस व्यक्ति की है जो समाज में प्रभात खबर जैसे ब्रांड का जमशेदपुर शहर में प्रतिनिधित्व करता है. शासन-प्रशासन व कानून के नजदीक है, शक्तिशाली है, बल और बुद्धि से अपनी बात मनवाने को सक्षम है. नहीं मानने पर अखबार के पन्नों पर किसी को मजबूर करने का सामर्थय रखता है. जब वह व्यक्ति व्यथित हो सकता है तो सोचिए उन लाचार, बेबश, मजबूर, लोगों का क्या हुआ होगा जिनका सामाजिक ताना-बाना एक क्षण में ध्वस्त कर दिया गया. एक-एककर पांच लोगों को अखबार छोड़ने पर मजबूर हो गये. अपने ही संपादकीय सहयोगियों को लगातार प्रताड़ित करने और उस ओर धीरे-धीरे वहां तक पहुंचाने देने की वे नौकरी छोड़ने को विवश हो गये, के दौरान उनके और उनके परिवारिक की सामाजिक पीड़ा का भान क्यों नहीं रहा? गहरी साजिश रचकर अपने ही एक संपादकीय सहयोगियों को प्रताड़ना का शिकार बनाया और प्रबंधन के कुछ लोगों के साथ मिलकर उसका तबादला परिवार से 700 किलोमीटर दूर कराने का षड़यंत्र रचा, तब इनकी मानवीय संवेदना कहां गयी थी?

तमाम सवाल है जो यक्ष प्रश्न बनकर खड़ें हैं

  • संजय मिश्रा जी की मानवीय संवेदना तब कहां गयी थी जब वह अपने अधिकार का दुरुपयोग कर लगातार संपादकीय सहयोगियों को परेशान कर रहे थे ?
  • संजय मिश्रा की प्रताड़ना से परेशान होकर जब सहयोगियों को नौकरी छोड़ने तक पर विवश होना पड़ा, उनके परिवार के बारे में कभी सोचा गया ?
  • क्या संजय मिश्रा जी ने यह सोचा कि समाज में प्रभात खबर के नैतिक मूल्यों की रक्षा करने वाले इन लोगों की सामाजिक प्रतिष्ठा का क्या होगा ?
  • क्या संजय मिश्रा जी ने कभी यह पता लगाने की जहमत उठायी कि इन पांच परिवारों के सदस्यों पर क्या बीत रही है, उनके घरों का चुल्हा जल रहा कि नहीं ?
  • प्रताड़ना से परेशान-आहत होकर नौकरी छोड़ने वाले इन परिवारों के बच्चों की पढ़ाई, बीमार बुजुर्गों के इलाज पर क्या असर पड़ा है क्या इसका पता है ?

न्यूटन ने वर्षों पहले कहा कि प्रत्येक क्रिया के बराबर वह विपरीत प्रतिक्रिया होती है. पुरखों और ऋर्षियों मुनियों ने बताया कि जो बोओगे वहीं काटना पड़ेगा. विद्वान संजय मिश्रा जी को यह बात क्यों समझ में नहीं आयी जो कर्म वे कर रहे हैं उसका खामियाजी एक न एक दिन उन्हें भी भुगतना पड़ेगा.

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खैर… मेरा मत है कि संजय मिश्रा जी की बात सुनी जानी चाहिए, पोर्टल फतेह लाइव को चाहिए कि उनकी बात को भी सुने और पूरा स्थान देकर प्रकाशित करे. सच को सामने लाये और उन शोषित-पीड़ित लोगों की आवाज मजबूती से बनकर समाज में खड़ा रहे, जिनकी आवाज को अखबार के पन्नों पर ऐसे लोग दबा रहे हैं. ये सक्षम लोग हैं, परेशान कर सकते हैं, प्रभावित कर सकते हैं, काम में परेशानी आ सकती है लेकिन समाज ऐसे लोगों के साथ नहीं, उनके साथ खड़ा रहेगा जो सच के साथ हैं. प्रभात खबर प्रबंधन को भी आगे बढ़कर उन गलतियों को सुधारने की पहल करनी चाहिए, जो संजय मिश्रा जी ने जाने-अनजाने में की है.

हां … अगर संपादक जी में नैतिक बल है तो सामाज के सामने किसी मंच पर आकर इन सवालों का जबाव दें, वरना … वह सोशल मीडिया पर यह सहानुभूति लेने का प्रपंच बंद करें.

सधन्यवाद !

मेल से आयी इस प्रतिक्रिया को हू-ब-हू प्रकाशित किया जा रहा है. इस बहस को आगे बढ़ाने के लिए हम अन्य प्रतिक्रियाओं का भी स्वागत करते हैं ताकि इससे जुड़े हर पक्ष की बात सामने आ सके और हमारे सजग पाठक हर पक्ष की स्थिति से वाकिफ हो सके और किसी को यह न लगे कि उसकी बात या उसका पक्ष सुना नहीं जा रहा है.

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