(निशिकांत ठाकुर की कलम से)

भारतीय संविधान के लिए गठित सभा में कानून के लगभग सभी उद्भट विद्वान शामिल थे, जिन्हें डॉ. राजेंद्र प्रसाद और डॉ. बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर के नेतृत्व द्वारा देखा जा रहा था. कोई कल्पना कर सकता है कि आजादी के बाद देश में न तो सड़कों का विस्तार हुआ, न ही रेलवे का जाल बिछा था, लेकिन उन महान कानूनविदों ने देश के कोने-कोने का निरीक्षण कर उन्हें एक सूत्र में गूंथकर एक माला की शक्ल में संविधान का रूप दिया. चाहे कोई कुछ भी कहे, चाहे वेदों से, उपनिषदों से, चाहे ब्रिटिश नियम और संविधान को या विश्व के किसी नियम-कानून को पढ़कर बनाया गया हो, वह एक नजीर है और उस ग्रन्थ को सोचकर आज भी अपना मस्तक गर्व से ऊंचा हो जाता है. यह भी ठीक है कि जिन्होंने समय, काल तथा परिस्थितियों के अनुसार उस ग्रन्थ को नहीं पढ़ा और न ही सोचा, उन्हें तो यह अधिकार है कि वे उनमें कमियां गिनाए, लेकिन उनके निर्माताओं के लिए कल्पना करके उन्हें नमन करने के लिए सिर स्वत: झुक जाता है.

अब थोड़ा भारतीय न्यायपालिका को समझने का प्रयास करते हैं. देश में कोई कितना ही बलशाली, बाहुबली हो, कितना भी बड़ा अत्याचारी हो, संविधान प्रदत्त अधिकारों द्वारा न्यायालय सच या झूठ का सबूतों के आधार पर निर्णय देकर उसे सही रास्ते पर चलने का अवसर देता है और पीड़ित को न्याय दिलाता है. यही अब तक समाज का विश्वास है और आगे भी ऐसा ही रहेगा. कुछ खामियां यदाकदा रह जाती हैं, लेकिन वह मानवीय भूल है, जिसे ऊपरी अदालत पहुंचने पर ठीक कर लिया जाता है. अब यदि बात करें सुप्रीम कोर्ट के जनहित, देशहित के लिए उसके अहम फैसले को जिसे देश सिर माथे पर लेता है. ऐसा इसलिए भी, क्योंकि संविधान की रक्षा का दायित्व तो उसी पर डाला गया है. राजनीति के लिए तो हर चीज में राजनीतिज्ञ अपना हित साधना चाहते हैं, लेकिन देश की न्यायिक व्यवस्था और संविधान का रक्षक सर्वोच्च न्यायालय को ही माना जाता है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि देश का विश्वास है कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला जनहित और देशहित में ही लिया गया है.

इस बीच सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जो कुछ ताबड़तोड़ फैसले लिए गए, उनके अहम फैसले में एक यह भी है कि उसने सरकार को चेताया है कि ‘भारत दुनियाभर के शरणार्थियों के लिए धर्मशाला नहीं है.’ जहां हमारे देश में आज भी अस्सी करोड़ लोग मुफ्त के सरकारी राशन पाने के लिए लाइन में लगते हैं, जहां बेरोजगारों की कतारें नजर आती हैं, वहां लाखों घुसपैठिये आज भी भारत में शरणार्थी बनकर देश के युवाओं से उनका रोजगार छीनकर, जहां के किसान अपना ऋण चुकाने के लिए आत्महत्या करते रहते हैं, उन्हें हम अपने भारत में किस तरह पनाह दे रहे हैं? सोचिए, अभी हाल-फिलहाल में अमेरिका जैसा सम्पन्न राष्ट्र अपने देश में गैर कानूनी रूप में घुसे अप्रवासी भारतीयों के हाथ-पैर में बेड़ियां डालकर वापस विभिन्न देशों सहित भारत को वापस लौटा रहा है.

ऐसे अवैध रूप से भारत में रह रहे शरणार्थियों को क्यों नहीं वापस भेजा जा सकता है? यह बड़ी गंभीर समस्या है, जिस पर सरकार को विचार करना ही पड़ेगा, अन्यथा एक दिन देश विदेशी शरणार्थियों से भरा पड़ा होगा और भारतीय सड़क पर होंगे. यह सत्य है कि भारत कोई भी अमानवीय कार्य नहीं करता; क्योंकि मानवीयता के आगे वह झुक जाता है. अतः कोई न कोई रास्ता तो शीर्ष पर बैठे संचालकों को निकालना ही पड़ेगा. इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सर्वमान्य होना चाहिए और सरकार को इसके लिए कदम उठाने चाहिए.

इसी तरह इस्लामी वक्फ बोर्ड का मामला चर्चा का विषय बना हुआ है, जो प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई और अगस्तिन जॉर्ज मसीह के पास है तथा उस पर देश के प्रसिद्ध सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता सरकार की ओर से अपना पक्ष रख रहे हैं. पिछले सप्ताह याचिकाकर्ताओं ने कानून पर अंतरिम रोक लगाने की मांग करते हुए कहा था कि यह कानून वक्फ संपत्तियों पर कब्जा करने वाला है. इस कानून में मुसलमानों की अपनी धार्मिक संपत्ति का प्रबंधन करने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है. अभी इस पर बहस होती रहेगी. देशभर में छात्रों द्वारा किए जा रहे रहस्यमय आत्महत्या के लिए विशेषकर राजस्थान सरकार से कोर्ट ने पूछा और इसी वर्ष कोटा शहर में, जहां छात्र अपने उज्वल भविष्य की आशा से जाते हैं, वहां 14 छात्रों द्वारा की गई आत्महत्या के लिए भी राजस्थान सरकार को कटघरे में खड़ा किया कि इस पर सरकार ने क्या चिंतन किया?

लेकिन, एक अहम मुद्दा जिस पर सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस बीआर गवई और एजी मसीह की अदालत ने अपना फैसला दिया. आज देश के हर हिस्से में ईडी (प्रवर्तन निदेशक/निर्देशालय) के नाम से हर कोई परिचित हो गया है, क्योंकि उसका आतंक इतना हो गया है कि कोई भी उसके नाम से ही डरकर अपनी इज्जत बचाने में लग जाता है. उसका कानून इतना सख्त बना दिया गया है कि उसके चंगुल में यदि कोई फंस गया, तो उससे बाहर निकलना कठिन हो जाता है. वैसे अपराधियों को दंड देना अपने वैदिक काल से ही होता रहा है, लेकिन देश में आज जिस प्रकार का खौफ ईडी ने बना दिया है, वह चिंतित करने वाला है। युधिष्ठिर ने अर्जुन को बहुत कुछ दंड के विधान के लिए कहा है. उन्होंने दंड को व्याख्यायित करते हुए कहा है कि लोगों को अपने-अपने नियम पर चलने, धन की रक्षा के निमित्त संसार में मनीषियों ने जो मर्यादा स्थापित की है, उसी का नाम दंड है. यदि लोक में दंड की सत्ता न हो, तो सारी प्रजा नष्ट हो जाएगी. बलवान दुर्बलों को इस प्रकार खा जाएंगे, जैसे जल में बड़ी मछली छोटी मछली को. लेकिन, जब उस दंड का गलत उपयोग किया जाने लगे, तो उस सत्ता को नष्ट होने से कोई रोक नहीं सकता. ईडी का इस बीच इसी प्रकार के छापे से आजिज आकर संभवतः उसे अपने रास्ते पर लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया हो. वैसे, कोर्ट ने शराब की दुकानों के लाइसेंस देने में कथित भ्रष्टाचार को लेकर तमिलनाडु सरकार और राज्य विपणन निगम की याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान यह फैसला दिया. राज्य सरकार और निगम ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर मद्रास हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती दी थी. जो भी हो, न्याय ही सर्वोच्च है, जिसे दंड का अर्थ गलत रास्ते पर चलने से रोकने के लिए ही निर्धारित किया गया है. हर युग में दंड का प्रावधान रहा है. आज भी है और भविष्य में भी रहेगा. अतः न्याय का उल्लंघन करने वाले सावधान रहें.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं)

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