लेखक – मुकेश मित्तल
मैं कोई सिनेमा प्रेमी नहीं हूं. मेरे लिए सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज पर उसका प्रभाव और उसकी सार्थकता भी महत्वपूर्ण है. आजकल बनने वाली अधिकांश फ़िल्में केवल व्यावसायिक उद्देश्य से बनाई जाती हैं, जिनका उद्देश्य केवल पैसा कमाना होता है, न कि समाज को कोई मूल्यवान संदेश देना. लेकिन हाल ही में रिलीज़ हुई फ़िल्म “छावा”, जो छत्रपति संभाजी महाराज के जीवन पर आधारित है, ने मेरा भी ध्यान खींचा और मुझे इसे देखने के लिए प्रेरित किया. यह सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि हमारे गौरवशाली इतिहास का एक जीवंत चित्रण है, जो न केवल युवा पीढ़ी को प्रेरित करता है बल्कि उन्हें अपने असली नायकों से भी जोड़ता है.
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“छावा” – शौर्य, बलिदान और इतिहास का जीवंत चित्रण
छत्रपति शिवाजी महाराज के वीर पुत्र संभाजी महाराज का जीवन संघर्षों से भरा रहा. केवल 16 वर्ष की उम्र में उन्होंने युद्ध कला में महारथ हासिल कर ली थी और मुगलों, पुर्तगालियों और अंग्रेजों से अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहे. उनकी वीरता, बलिदान और दूरदर्शिता ने मराठा साम्राज्य को सशक्त बनाया. फ़िल्म “छावा” इसी वीर योद्धा की कहानी को बड़े पर्दे पर उतारती है, जो इतिहास प्रेमियों और देशभक्तों के लिए एक अद्वितीय अनुभव है. फ़िल्म की कहानी उनके जीवन के संघर्षों, उनकी रणनीतिक सोच और औरंगज़ेब के खिलाफ उनके अदम्य साहस को दर्शाती है. यह फ़िल्म केवल एक ऐतिहासिक घटना को दिखाने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारे भीतर छिपे देशप्रेम और स्वाभिमान को जाग्रत करने का काम भी करती है.
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युवाओं के लिए एक प्रेरणा
आज का युवा आधुनिकता की चकाचौंध में अपने वास्तविक नायकों को भूलता जा रहा है. इतिहास की पुस्तकों से दूर होते हुए, वे विदेशी संस्कृति और सुपरहीरो फिल्मों में अधिक रुचि लेने लगे हैं. ऐसे में “छावा” जैसी फ़िल्में उन्हें अपने इतिहास और संस्कृति से जोड़ने का कार्य करती हैं. संभाजी महाराज का जीवन यह सिखाता है कि कैसे कठिनाइयों के बावजूद अपने धर्म, संस्कृति और मातृभूमि की रक्षा की जा सकती है. वे केवल एक योद्धा नहीं थे, बल्कि एक दूरदर्शी राजा भी थे, जिन्होंने साहित्य, कला और सैन्य रणनीति में योगदान दिया. जब आज के युवा फिल्मों के माध्यम से ऐसे महापुरुषों को जानेंगे, तो निश्चित रूप से उनमें भी अपने देश और समाज के लिए कुछ करने की भावना जागेगी.
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सिनेमा का उद्देश्य – सिर्फ व्यापार नहीं, समाज को दिशा देना भी जरूरी
आजकल फिल्मों का मुख्य उद्देश्य केवल बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड तोड़ना रह गया है. निर्माता-निर्देशक ऐसे विषयों पर फिल्में बना रहे हैं, जो समाज में विकृत विचारधारा को जन्म देते हैं और युवा पीढ़ी को भ्रमित करते हैं. बॉलीवुड और अन्य फिल्म इंडस्ट्री में ज्यादातर फिल्में सिर्फ ग्लैमर और मसालेदार कंटेंट पर केंद्रित हैं, जिनका समाज पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता. लेकिन “छावा” जैसी फ़िल्में हमें यह एहसास कराती हैं कि सिनेमा केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण में भी एक अहम भूमिका निभा सकती हैं. जब फ़िल्मों के माध्यम से हमें अपने गौरवशाली इतिहास के बारे में पता चलेगा, तो निश्चित रूप से हम अपने अतीत से प्रेरणा लेंगे और अपने भविष्य को और भी मजबूत बनाएंगे.
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भारत की आर्थिक प्रगति में ऐसी फिल्मों की भूमिका
भारतीय फिल्म उद्योग (बॉलीवुड, टॉलीवुड, मॉलीवुड, मराठी, तेलगु, कन्नड़ आदि) देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देता है. लेकिन अगर फ़िल्में केवल व्यावसायिक सफलता के लिए बनाई जाएंगी, तो यह उद्योग केवल एक मुनाफाखोरी का साधन बनकर रह जाएगा. “छावा” जैसी फ़िल्में जब बनती हैं और लोग इन्हें पसंद करते हैं, तो इससे फिल्म निर्माताओं को यह संदेश मिलता है कि सार्थक और प्रेरणादायक सिनेमा भी सफल हो सकती हैं. इससे भविष्य में और भी ऐसी फिल्मों को बढ़ावा मिलेगा, जो हमारे समाज और राष्ट्र की उन्नति में सहायक बनेंगी. इसके अलावा, जब ऐतिहासिक और देशभक्ति से जुड़ी फ़िल्में लोकप्रिय होती हैं, तो पर्यटन उद्योग को भी लाभ होता है. लोग उन ऐतिहासिक स्थानों को देखने जाते हैं, जो फ़िल्मों में दिखाए गए होते हैं. इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी मजबूती मिलती है.
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संभाजी महाराज की कहानी हर भारतीय तक पहुंचनी चाहिए
संभाजी महाराज की कहानी केवल मराठाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे भारत के लिए गर्व की बात है. वे एक ऐसे योद्धा थे, जिन्होंने कभी भी दुश्मनों के सामने घुटने नहीं टेके. उनका जीवन हमें सिखाता है कि अपने सिद्धांतों और मातृभूमि के लिए किसी भी कठिनाई का सामना किया जा सकता है. “छावा” जैसी फ़िल्मों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वे हमें अपने अतीत की उन कहानियों से परिचित कराती हैं, जो हमें कभी इतिहास की किताबों में विस्तार से पढ़ने को नहीं मिलीं. यह फ़िल्म हर भारतीय को यह सोचने पर मजबूर करती है कि अगर हमारे पूर्वज इतने साहसी और बलिदानी थे, तो हमें भी अपने समाज और राष्ट्र के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहिए.
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ऐसी फिल्मों को समर्थन देना हमारा कर्तव्य
“छावा” सिर्फ एक फ़िल्म नहीं, बल्कि एक आंदोलन है, जो हमारी युवा पीढ़ी को अपने गौरवशाली इतिहास से जोड़ता है. यह फ़िल्म बताती है कि देशभक्ति केवल शब्दों में नहीं, बल्कि कर्मों में होनी चाहिए. हमें ऐसी फ़िल्मों का समर्थन करना चाहिए ताकि भविष्य में भी हमारे देश के असली नायकों की कहानियाँ बड़े पर्दे पर उतर सकें. क्योंकि जब तक हम अपने इतिहास से जुड़े रहेंगे, तब तक हम अपने भविष्य को भी सही दिशा में ले जा पाएंगे. इसलिए, मैं यह कहना चाहूँगा कि अगर आपने अभी तक “छावा” नहीं देखी है, तो एक बार अवश्य देखें. यह सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि आपके भीतर देशभक्ति और स्वाभिमान की भावना को जागृत करने वाला एक अनुभव है.