फतेह लाइव, रिपोर्टर.
अभी आपने एक खबर पढ़ी होगी जिसमें भारत के दशकों से मित्र रहे रुस ने पाकिस्तान में स्टील प्लांट लगाने के लिए समझौता किया है. अगर आप अंतरराष्ट्रीय मामलों के थोड़े भी जानकार हैं, खबरें पढ़ते हैं तो इस खबर को पढ़ कर आप चौंके जरुर होंगे. पाकिस्तान और रुस एक साथ! खबर बिल्कुल सही है. आने वाले दिनों में रुस, पाकिस्तान में स्टील प्लांट लगाने जा रहा है. इससे भारत को क्या नफा-नुकसान होना है, उसकी चर्चा फिर कभी। लेकिन, आपको समझना पड़ेगा कि रुस का पाकिस्तान में स्टील प्लांट लगाने का फैसला इतना सामान्य नहीं है. खास कर तब, जब अभी ‘ऑपरेशन सिंदूर’ चल रहा है.
ऑपरेशन सिंदूर को ही स्मरण करें तो पाकिस्तान का साथ देने के लिए तुर्की, चीन और अजरबैजान चट्टान की तरह खड़े हो गये थे. ये अभी भी पाकिस्तान के साथ खड़े हैं. तुर्की और चीन ने पाकिस्तान को हथियार दिये. अजरबैजान ने समर्थन दिया. इन तीन देशों का जिस तरीके से पाकिस्तान को साथ मिला, इससे उसकी विदेश नीति, इस्लाम के प्रति उनका रवैया भी साफ दृष्टिगोचर होता है.
बड़ा सवाल यह है कि भारत के साथ कौन से देश आए? क्या दुनिया का एक भी ऐसा देश था, जो ताल ठोक कर भारत के साथ खड़ा हुआ? जवाब है नहीं. उल्टे रुस जैसा दशकों पुराना भारत का दोस्त पाकिस्तान में स्टील की फैक्ट्री लगाने जा रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की आवाज धाकड़ तरीके से नहीं सुनी जा रही है. एक सीमित युद्ध में ही भारत का कोई भी मित्र देश भारत के साथ खड़ा नहीं होता. अगर यह बड़े पैमाने का युद्ध होता तो क्या कोई देश भारत के साथ खड़ा होता? आप कहेंगे, जब चार दिन के सीमित युद्ध में नहीं हुआ तो बड़े युद्ध में कौन खड़ा होता!
प्रधानमंत्री का सरकारी वेबसाइट पीएमइंडिया.गोव.इन कहता है कि बीते 11 वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 49 देशों की यात्रा की. अन्य वेबसाइट के आंकड़े 60 देशों की यात्रा दिखा रहे हैं. हम मान लेते हैं कि प्रधानमंत्री 49 देशों की यात्रा पर गये. उन 49 देशों में से एक भी देश ऐसा नहीं, जो ताल ठोक कर भारत के पक्ष में आता. आखिर ऐसा क्यों है? क्या वजह है कि मोदी जब भी किसी देश में जाते हैं तो मोदी-मोदी के नारे लगते हैं? भारत की बात क्यों नहीं होती? यह हमारी विदेश नीति की ढुलमुलता को ही इंगित करता है.
2014 में जब मोदी प्रधानमंत्री बने थे तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी डॉक्टरीन की बातें होने लगी थी. अब कहां है वह मोदी डॉक्टरीन? मोदी जी ने 2014 में सार्क देशों को अपने शपथ ग्रहण समारोह में बुलाया. भरसक प्रयास किया गया कि सभी देशों के साथ भारत के संबंध अच्छे रहें. संबंध क्या अच्छे रहेंगे, दो तौड़ी का बांग्लादेश हमें आंखें दिखाता है. नेपाल भी जब-तब हमें आंखें दिखाने से परहेज नहीं करता. श्रीलंका से हमारे संबंध जगजाहिर हैं. भूटान की विदेश नीति पूरी तरह से 360 डिग्री पर बदली हुई है. सवाल ये है कि मोदी डॉक्टरीन को हुआ क्या? हमारे पड़ोसियों से ही हमारे संबंध अगर मधुर नहीं हैं तो क्यों?
हमें अपनी विदेश नीति को देखनी होगी। विदेशमंत्री एस. जयशंकर को बोल-वचन को सुनना, समझना और उसका विश्लेषण करने की जरूरत है. वह कहते हैं कि ऑपरेशन सिंदूर शुरु होने के पहले उन्होंने पाकिस्तान को सूचना दे दी थी. इस पर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस कहां पीछे रहने वाली थी? राहुल गांधी ने एस जयशंकर को लपेटे में ले लिया. कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने सवाल दागा कि विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने ख़ुद मीडिया एजेंसियों को बताया कि हमने हमला करने से पहले पाकिस्तान को सूचित कर दिया था। अब ये सूचित करने का क्या मतलब होता है? विदेश मंत्री को पाकिस्तान पर इतना भरोसा है कि उनके कहने पर आतंकी चुपचाप बैठेंगे? विदेश मंत्री जी का क्या रिश्ता है और उन्होंने हमले से पहले पाकिस्तान को क्यों बताया? दरअसल, इस किस्म की विदेश नीति भारत की कभी थी ही नहीं. यह सब बीते 11 वर्षों में बदला है. 11 साल पहले कोई भी भारतीय विदेश मंत्री इस किस्म की बातें नहीं करता था.
यहां तक कि तीन बार के प्रधानमंत्री रहे स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में भी जो विदेशमंत्री हुए, वह भी इस किस्म की बयानबाजी से बचते रहे. बीते 30 मई को जयंशंकर एक बयान अखबारों की सुर्खियां बना, जिसमें उन्होंने अमरीकी राष्ट्रपति पर हमला किया. उन्होंने कहाः कुछ देशों के लिए अब ये एक फैशन बन गया है कि वे पब्लिकली खुद को डील मेकर घोषित करें और देशों के बीच डील कराने वाले की तरह व्यवहार करें. इस बयान के माध्यम से जयशंकर का इशारा सीधे तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर था, जो भारत-पाकिस्तान सीजफायर का क्रेडिट लेने के चक्कर में थे.
ट्रंप ने यहां तक कहा कि भारत को उन्होंने ट्रेड के दबाव में लाकर यह फैसला कराया. इसके उलट, 30 मई को ही ट्रंप ने बाकायदा कोर्ट में एफिडेविट देकर नौवीं बार इस बात को दोहराया है कि उन्होंने ही भारत और पाकिस्तान के बीच में संघर्ष विराम कराया. इससे यह पता चलता है कि दरअसल अमरीका ने ही संघर्ष विराम कराया और पाकिस्तान और भारत ने इसे माना भी. पहले साढ़े चार बजे पाकिस्तान ने संघर्ष विराम की घोषणा की और आधे घंटे के बाद भारत के विदेश सचिव मिस्त्री ने इसकी घोषणा की.
अगर आपको याद हो तो आजादी के वक्त से ही भारत की यह नीति रही थी कि कश्मीर के मुद्दे पर दुनिया का कोई भी तीसरा देश मध्यस्थता नहीं करेगा. भारत ऐसी किसी भी मध्यस्थता को कतई स्वीकार नहीं करेगा. यह आजादी के बाद से चली आ रही हमारी विदेशनीति का एक वाक्य में लिखित नीति रही है. फिर क्या वजह है कि हमने अमरीका की मध्यस्थता स्वीकारी? जयशंकर बार-बार कह रहे हैं कि भारत और पाकिस्तान के डीजीएमओ के बीच में हॉटलाइन पर बातचीत के बाद संघर्ष विराम का फैसला हुआ. लेकिन, डोनाल्ड ट्रंप ने जो एफिडेविट देकर कहा, उसका क्या जवाब है जयशंकर या भारत सरकार के पास?
सच तो यह है कि ऑपरेशन सिंदूर के बाद हमारी विदेश नीति ताश के पत्तों की तरह भरभरा कर ढह गई है. इन 11 वर्षों में एक व्यक्ति के विदेशी दौरों को व्यक्ति विशेष के संदर्भ में दुनिया भर में दिखाने का प्रचलन हो गया है. देश एक तरफ, व्यक्ति विशेष एक तरफ. यही वजह है कि अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, भूटान, म्यांमार, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव जैसे पड़ोसियों के रहते कोई हमारे साथ नहीं आता. हमारे साथ न तो इटली, न फ्रांस, न इंग्लैंड और ना ही ऑस्ट्रेलिया आए. इजरायल भी सीधे-सीधे भारत के पक्ष में नहीं आया और ना ही संयुक्त अरब अमीरात. इनमें से कई देश हमारे स्ट्रैटिजिक पार्टनर भी हैं. जब रुस ने ही हाथ खींच लिया तो शेष देशों की क्या बिसात. इसलिए, 56 इंच का सीना और घर में घुस कर मारने जैसी बातों से तौबा कर विदेश नीति पर फिर से मंथन करने की जरूरत है. एक नैरेटिव यह भी है कि हमें किसी के मदद की जरूरत ही नहीं थी. पाकिस्तान के लिए तो हम लोग अकेले काफी थे. यही हमारी विदेशनीति की सबसे विनाशकारी पंक्ति रही है.
पाकिस्तान कहां अकेला था? उसके साथ तो चीन, तुर्की और अजरबैजान भी थे. क्या विदेश विभाग को यह नहीं दिख रहा था? अगर सच में नहीं दिख रहा था तो मानना पड़ेगा कि विदेश विभाग की दिनौंधी (दिन में भी न दिखना) और रतौंधी (रात में न दिखना) का अब मुकम्मल इलाज करना होगा.