• जमींदार पंडित की फांसी की सच्ची घटना बनी परंपरा की नींव, बिना मुस्लिम परिवार के गांव में हर साल ताजिया और फातिहा
  • धर्म की दीवारें नहीं, परंपरा और सम्मान बनाते हैं एकजुट समाज

फतेह लाइव, रिपोर्टर

नावाडीह प्रखंड का बरई गांव सांप्रदायिक सौहार्द और आस्था की एक ऐसी मिसाल है, जो पूरे देश के लिए प्रेरणा बन सकती है. यहां एक हिंदू परिवार पिछले डेढ़ सौ वर्षों से मोहर्रम का पर्व पूरी श्रद्धा और परंपरा के साथ मना रहा है. गांव में एक भी मुस्लिम परिवार नहीं है, फिर भी मोहर्रम के मौके पर फातिहा, ताजिया और कर्बला की सभी धार्मिक रस्में निभाई जाती हैं. इस परंपरा की शुरुआत स्वर्गीय जमींदार पंडित ने की थी, जिनके वंशज आज भी इस परंपरा को निभा रहे हैं. उनकी बनाई हुई इमामबाड़ा और कर्बला आज भी बरई गांव में स्थित है, जहां हर साल मोहर्रम पर आयोजन होते हैं.

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इस परंपरा की जड़ें एक ऐतिहासिक घटना से जुड़ी हैं. जमींदार पंडित का पड़ोसी गांव बारीडीह के जमींदार से सीमा विवाद हो गया था, जिसमें हिंसक संघर्ष हुआ. उन्हें ब्रिटिश अदालत ने फांसी की सजा सुनाई. जिस दिन उन्हें फांसी दी जानी थी, वह दिन मोहर्रम का था. अंतिम इच्छा पूछने पर उन्होंने एक मुजावर से फातिया सुनने की इच्छा जताई. इच्छा पूरी हुई और जब फांसी दी गई तो तीन बार फंदा अपने आप खुल गया. तब ब्रिटिश कानून के अनुसार उन्हें मुक्त कर दिया गया. इस चमत्कार के बाद उन्होंने अपने गांव बरई में इमामबाड़ा बनवाकर हर साल मोहर्रम पर फातिया पढ़वाना शुरू किया.

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आज भी चिंतामणि साव, रविशंकर साव, कुंदन साव, सुरेश साव, दीपक साव सहित पूरे परिवार और गांव के लोग इस परंपरा को पूरी आस्था से निभाते हैं. शनिवार को बरकी चौकी पर फातिया पढ़ा गया, रविवार को ताजिया का जुलूस निकाला गया और शाम को कर्बला में ताजिया को दफन किया गया. पूरे गांव में मेला जैसा माहौल रहा. यह परंपरा बताती है कि धार्मिक सहिष्णुता और मानवीय मूल्यों की मिसालें आज भी जीवित हैं.

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