भारतीय जन संचार संस्थान(आईआईएमसी) के पूर्व महानिदेशक प्रो.संजय द्विवेदी से वरिष्ठ पत्रकार आनंद सिंह की बातचीत-

फतेह लाइव, रिपोर्टर.

प्रो.संजय द्विवेदी, भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), नयी दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार, भोपाल के प्रभारी कुलपति और कुलसचिव भी रहे हैं. सक्रिय लेखक हैं और अब तक 35 पुस्तकें प्रकाशित. 14 साल की सक्रिय पत्रकारिता के दौरान कई प्रमुख समाचार पत्रों के संपादक रहे. संप्रति माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में आचार्य और अध्यक्ष हैं. उनसे बातचीत की वरिष्ठ पत्रकार आनंद सिंह ने. प्रस्तुत है इस चर्चा के मुख्य अंश.

सवालः टीवी चैनलों और डिबेट्स में इन दिनों पाकिस्तान को लेकर जो कुछ भी चल रहा है, उसे आप कैसे देखते हैं?

जवाबः कोई भी दृश्य माध्यम बहुत प्रभावशाली होता ही है। टीवी का भी असर है। उसके साथ आवाज और दृश्य का संयोग है. दृश्य माध्यमों की यही शक्ति और सीमा दोनों है. टीवी पर ड्रामा क्रियेट करना पड़ता है. स्पर्धा और आगे निकलने की होड़ में कई बार सीमाएं पार हो जाती हैं. यह सिर्फ भारत-पाक मामले पर नहीं है. यह अनेक बार होता है. जब मुद्दे नहीं होते तब मुद्दे खड़े भी किए जाते हैं. मैं मानता हूं कि इस मुद्दे पर चर्चा बहुत हो रही है, किंतु इसका बहुत लाभ नहीं है. हर माध्यम की अपनी जरूरतें और बाजार है, वे उसके अनुसार ही खुद को ढालते हैं. बहुत गंभीर विमर्श के और जानकारियों से भरे चैनल भी हैं. किंतु जब मामला लोकप्रियता बनाम गंभीरता का हो तो चुने तो लोकप्रिय ही जाते हैं. शोर में बहुत सी आवाजें दब जाती हैं, जो कुछ खास कह रही हैं. हमारे पास ऐसी आवाजें को सुनने का धैर्य और अवकाश कहां हैं?

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सवालः क्या आप यह मानते हैं कि इस देश में ट्रेंड जर्नलिस्टों की घोर कमी है?

जवाबः ट्रेनिंग से आपका आशय क्या है मैं समझ नहीं पाया. बहुत पढ़-लिखकर भी आपको एक व्यवस्था के साथ खड़ा होना पड़ता है. हम लोग जब टीवी में नौकरी के लिए गए तो कहा गया कि ये लेख लिखने वाले खालिस प्रिंट के लोग हैं, टीवी क्या करेंगें. किंतु हमने टीवी और उसकी भाषा को सीखा. हम गिरे या उन्नत हुए ऐसा नहीं कह सकते. हर माध्यम अपने लायक लोग खोजता और तैयार करता है. मैंने प्रिंट, डिजीटल और टीवी तीनों में काम किया. तीनों माध्यमों की जरूरतें अलग हैं. इसके साथ ही संस्थानों के चरित्र और उनकी जरूरतें भी अलग-अलग हैं. आप आकाशवाणी में जिस भाषा में काम करते हैं, वे बाजार में चल रहे एफएम रेडियो के लिए बेमतलब है. कोई ऐसी ट्रेनिंग नहीं जो आपको हर माध्यम के लायक बना दे. आप किसी एक काम को सीखिए उसी को अच्छे से करिए. जहां तक ट्रेंड जर्नलिस्ट की बात है, देश में बहुत अच्छे मीडिया के लोग हैं. बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. इतने बड़े देश, उसकी आकांक्षाओं, आर्तनाद, दर्द और सपनों को दर्ज करना बड़ी बात है, मीडिया के लोग इसे कर रहे हैं. अपने-अपने माध्यमों के अनुसार वे अपना कटेंट गढ़ रहे हैं. इसलिए मैं यह मानने को तैयार नहीं कि हमारे लोग ट्रेंड नहीं हैं.

सवालः क्या आप मानते हैं कि मीडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्र बिंदु मान कर पत्रकारिता कर रहा है? प्रो- मोदी, एंटी मोदी को क्या आप मानते हैं?

जवाबः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके समर्थकों के साथ उनके विरोधियों ने भी बनाया है. मोदी का नाम इतना बड़ा हो गया है कि उनके समर्थन या विरोध दोनों से आपको फायदा मिलता है. अनेक ऐसे हैं जो मोदी को गालियां देकर अपनी दुकान चला रहे हैं, तो अनेक उनकी स्तुति से बाजार में बने हुए हैं. इसलिए ‘मोदी समर्थक’ और ‘मोदी विरोधी’ दो खेमे बन गए हैं. यह हो गया है. समाज जीवन के हर क्षेत्र में यह बंटवारा दिखने लगा है। राजनीति, पत्रकारिता, शिक्षा, समाज सब जगह ये दिखेगा. इसमें अंधविरोध भी है और अंधसमर्थन भी. दोनों गलत हैं. किसी समाज में अतिवाद अच्छा नहीं. मैं यह मानता हूं कोई भी व्यक्ति जो देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा है वह सिर्फ गलत कर रहा है या उससे कोई भूल नहीं हो सकती, मैं इसे नहीं मानता. गुण और दोष के आधार पर समग्रता से विचार होना चाहिए. किंतु मोदी जी को लेकर एक अतिवादी दृष्टिकोण विकसित हो गया है. यहां तक कि मोदी विरोध करते-करते उनके विरोध भारत विरोध और समाज विरोध तक उतर आते हैं. यह ठीक नहीं है.

सवालः कई यूट्यूब चैनल्स मोदी के नाम पर, चाहे विरोध हो अथवा प्रशंसा, लाखों रुपये कमाने का दावा करते हैं. क्या आप इस तथ्य से सहमत हैं कि यूट्यूब हो या मीडिया का कोई और प्रकल्प, वहां मोदी ही हावी रहते हैं? यह स्वस्थ पत्रकारिता के लिए किस रुप में देखा जाएगा?

जवाबः मैंने पहले भी कहा कि श्री नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व ऐसा है कि उन्होंने अपने विरोधियों और समर्थकों दोनों को रोजगार दे रखा है. उनका नाम लेकर और उन्हें गालियां देकर भी अच्छा व्यवसाय हो सकता है, यही ‘ब्रांड मोदी’ की ताकत है. आपने कहा कि मोदी हावी रहते हैं, क्या मोदी ऐसा चाहते हैं? आखिर कौन व्यक्ति होगा कि जो गालियां सुनना चाहता है. यह बात ठीक है कि किसी का अंधविरोध अच्छी पत्रकारिता नहीं है. यह ‘सुपारी पत्रकारिता’ है. एक व्यक्ति जिसने अपनी जिंदगी के पचास वर्ष सार्वजनिक जीवन में झोंक दिए, जिसके ऊपर भ्रष्टाचार, परिवारवाद का कोई कलंक नहीं है. उसके जीवन में कुछ लोगों को कुछ भी सकारात्मक नजर नहीं आता तो यह उनकी समस्या है. नरेंद्र मोदी को इससे क्या फर्क पड़ता है। वे गोधरा दंगों के बाद वैश्विक मीडिया के निशाने पर रहे , खूब षड़यंत्र रचे गए पर उनके विरोधी कहां हैं और वे कहां हैं आप स्वयं देखिए.

सवालः अनेक चैनलों पर आपने अब संघ की विचारधारा के लोगों को प्राइम टाइम में डिस्कस करते देखा होगा. क्या आप मानते हैं कि देश का मिजाज बनाने के क्रम में संघ मीडिया में घुसपैठ करने में कामयाब हुआ है?

जवाबः आमतौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रचार से दूर रहता है. उनके लोगों में छपने और टीवी पर दिखने की वासना मैंने तो नहीं देखी. जो लोग संघ की ओर से चैनलों पर बैठते हैं, वे संघ के अधिकृत पदाधिकारी नहीं हैं. संघ के विचार के समर्थक हो सकते हैं. इसे घुसपैठ कहना ठीक नहीं. संघ दुनिया के सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन है. उसके विचारों पर चलने वाले दो दर्जन से अधिक संगठनों की आज समाज में बड़ी भूमिका है. यह भी सच है कि प्रधानमंत्री सहित उसके अनेक स्वयंसेवक आज मंत्री, सांसद,विधायक और मुख्यमंत्री हैं. ऐसे में समाज और मीडिया दोनों की रुचि यह जानने में है कि संघ की सोच क्या है. लोग इस बारे में जानना चाहते हैं. संघ की रुचि मीडिया में छा जाने की नहीं है. समाज की रुचि संघ को जानने की है. इसलिए कुछ संघ को समझने वाले लोग चैनलों पर अपनी बात कहते हैं. मुझे जहां तक पता है कि संघ इस प्रकार की चर्चाओं, विवादों और वितंडावाद में रुचि नहीं रखता. उसका भरोसा कार्य करने में है, उसका विज्ञापन करने में नहीं.

सवालः हाल ही में आपने एक खबर पढ़ी होगी कि संघ प्रमुख मोहन भागवत पहली बार प्रधानमंत्री से मिलने गए और उनकी लंबी बातचीत हुई. युद्ध की आशंका से घिरे इस देश में भागवत का मोदी से मिलना क्या संकेत देता है?

जवाबः देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन के मुखिया का प्रधानमंत्री से मिलना जरूर ऐसी बात है जिसकी चर्चा होगी ही. पिछले महीने भी नागपुर संघ मुख्यालय में जाकर प्रधानमंत्री ने सरसंघचालक से मुलाकात की थी. यह बहुत सहज है. उनकी क्या बात हुई, इसे वे दोनों ही बता सकते हैं. पर मुलाकात में गलत क्या है. संवाद तो होना ही चाहिए.

सवालः सक्रिय पत्रकारिता में एक तथ्यात्मक फर्क ये देखने को मिल रहा है कि फील्ड के संवाददाता बहुधा अब फील्ड में कम ही जाते हैं. ऐसे अनेक उदाहरण हैं. यह पत्रकारिता, खास कर हिंदी पत्रकारिता को कितना डैमेज कर रहे हैं?

जवाबः यह सही है कि मैदान में लोग कम दिखते हैं. मौके पर जाकर रिपोर्ट करने का अभ्यास कम दिखता है.इसके दो कारण हैं. पहला है सोशल मीडिया जिसके माध्यम से कम्युनिकेशन तुरंत हो जाता है. घटना के खबर, फोटो, इंटरव्यू आपके पहुंचने से पहले आ जाते हैं. सूचनाओं को भेजने की प्रक्रिया सरल और सहज हो गयी है. बातचीत करना आसान है. आप कहीं से भी किसी से भी बात कर सकते हैं. दूसरा यह है कि मीडिया बहुत बढ़ गया है. हर कस्बे तक मीडिया के लोग हैं. हो सकता है वे वेतनभोगी न हों, पर पत्रकार तो हैं. खबरें, वीडियो सब भेजते हैं. सो चीजें कवर हो रही हैं. ग्रामीण, जिला स्तर पर कवरेज का दायरा बहुत बढ़ा है. जिलों-जिलों के संस्करण और टीवी चैनलों के राज्य संस्करण आखिर खबरें ही दिखा रहे हैं. यह सही बात है कि पहले की तरह राजधानियों के संवाददाता, बड़े शहरों मे विराजे पत्रकार अब हर बात के लिए दौड़ नहीं लगाते, तब जबकि बात बहुत न हो। अभी जैसे पहलगाम हमला हुआ तो देश के सारे चैनलों के स्टार एंकर मैदान में दिखे ही. इसलिए इसे बहुत सरलीकृत करके नहीं देखना चाहिए. मीडिया की व्यापकता को देखिए। उसके विस्तार को देखिए. उसके लिए काम कर रहे अंशकालिक पत्रकारों की सर्वत्र उपस्थिति को भी देखिए.

सवालः हिंदी अथवा अंग्रेजी या उर्दू, किसी भी अखबार को उठाएं, सत्ता वर्ग की चिरौरीनुमा खबरों से आपके दिन की शुरुआत होती है. क्या आप इस तथ्य में यकीन करते हैं कि हर रोज का अखबार सरकार के लिए चेतावनी भरे स्वर में शीर्षकयुक्त होने चाहिए, ना कि चिरौरी में?

जवाबः मैं नहीं जानता आप कौन से अखबार की बात कर रहे हैं. मुझे इतना पता है कि 2014 से कोलकाता का ‘टेलीग्राफ’ क्या लिख रहा है. ‘हिंदू’ क्या लिख रहा है. मुख्यधारा के अन्य अखबार क्या लिख रहे हैं. देश का मीडिया बहुत बदला हुआ है. यह वह समय नहीं कि महीने के तीस दिनों में प्रधानमंत्री की हेडलाइंस बने. राजनीतिक खबरें भी सिकुड़ गयी हैं. पहले पन्ने पर क्या जा रहा है, ठीक से देखिए. पूरे अखबार में राजनीतिक खबरें कितनी हैं, इसे भी देखिए. मुझे लगता है कि हम पुरानी आंखों से ही आज की पत्रकारिता का आकलन कर रहे हैं. आज के अखबार बहुत बदल गए हैं. वे जिंदगी को और आम आदमी की जरूरत को कवर कर रहे हैं. देश के बड़े अखबारों का विश्लेषण कीजिए तो सच्चाई सामने आ जाएगी.

सवालः एक नया ट्रेंड यह चला है कि आपने सत्तापक्ष को नाराज करने वाली खबरें लिखीं नहीं कि आपका विज्ञापन बंद. फिर बड़े-बड़े संपादक-प्रबंधक-दलाल सरकार के मुखिया से दो वक्त का टाइम लेने के लिए मुर्गा तक बन जाते हैं. आखिर ऐसे अखबारों पर लोग यकीन करें तो कैसे और क्या जनता को ऐसे अखबारों को आउटरेट रिजेक्ट नहीं कर देना चाहिए?

जवाबः सत्ता को मीडिया के साथ उदार होना चाहिए. अगर सरकारें ऐसा करती हैं तो गलत है. मीडिया को सत्ता के आलोचनात्मक विमर्श का रिश्ता रखना ही चाहिए. यही हमारी भूमिका है. मैं देश भर की पत्र-पत्रिकाओं का देखता हूं. मैंने ऐसी पत्र-पत्रिकाओं में उत्तर-प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश सरकार के विज्ञापन लगातार देखे हैं जिन्होंने मोदी और योगी की सुपारी ले रखी है. मीडिया अपना काम कर रहा है, उसे करने दीजिए. मीडिया को सताने के मामले में स्वयं को बहुत लोकतांत्रिक कहलाने वाली राज्य सरकारों का चरित्र और व्यवहार क्या रहा है, मुझसे मत कहलवाइए.

सवालः इन दिनों आपको म्यूजिक सुनने का मौका मिल पाता है? पसंदीदा गायक कौन हैं?

जवाबः संगीत तो जीवन है. मेरे सुनने में बहुत द्वंद्व है या तो गजल सुनता हूं या फिर भजन. जगजीत सिंह की आवाज दिल के बहुत करीब है. फिर मोहम्मद ऱफी मुकेश भी कम नहीं. लता जी के तो क्या कहने. सब रूह को छू लेने वाली आवाजें हैं. शनिवार और मंगलवार सुंदरकांड भी सुनता हूं.

सवालः आखिरी मर्तबा आपने कौन सी पुस्तक पूरी पढ़ी? क्या हासिल हुआ आपको?

जवाबः देश के प्रख्यात पत्रकार, समाज चिंतक और विचारक श्री रामबहादुर राय की किताब ‘भारतीय संविधान- एक अनकही कहानी’ मैंने पढ़ी है, जिसने संविधान से जुड़े तमाम सवालों को फिर से चर्चा में ला दिया है. पद्मश्री से अलंकृत और जनांदोलनों से जुड़े रहे श्री रामबहादुर राय की यह किताब कोरोना काल के विषैले और कड़वे समय के वैचारिक मंथन से निकला ‘अमृत’ है. आजादी का अमृतकाल हमारे राष्ट्र जीवन के लिए कितना खास समय है, इसे कहने की जरूरत नहीं है. किसी भी राष्ट्र के जीवन में 75 साल वैसे तो कुछ नहीं होते, किंतु एक यात्रा के मूल्यांकन के लिए बहुत काफी हैं.

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