• बीते दो चुनावों के नतीजे बेहतर नहीं रहे, इसलिए ऐसा चेहरा चाहिए जो दमखम दिखा सके
  • आस्तिक, सुनील महतो ओर मोहन प्रबल दावेदार, दुलाल व फणींद्र का भी उछला नाम

आदित्य सिंह.

लोकसभा चुनाव के नगाड़े बजने लगे हैं. जमशेदपुर लोकसभा सीट झामुमो का पुराना गढ़ रहा है, झारखंड आंदोलन के जमाने से. शैलेंद्र महतो, सुनील महतो, सुमन महतो यहां से झामुमो सांसद रहे है. सुमन महतो दो बार सांसद रह चुकी हैं. अभी विद्युत वरण महतो सांसद है जिनका पूरा राजनीतिक जीवन झामुमो में ही गुजरा है. 2014 में भाजपा में आए. टिकट पाए और सांसद चुन लिए गए. बीते दो लोकसभा चुनावों के नतीजे झामुमो के लिए इतने खराब रहे हैं कि कार्यकर्ताओं के हौसलों की नींव हिल गई है. इस बार झामुमो नेतृत्व को यहां तक सोचना पड़ रहा है कि इंडिया गठबंधन में जमशेदपुर सीट ली जाय या नहीं.

राजकुमार सिंह
राजीव रंजन सिंह

इस कवायद के बीच झामुमो नेतृत्व दमदार उम्मीदवार पर सोच विचार भी कर रहा है. पार्टी चाहती है कि ऐसा चेहरा चुनावी मैदान में उतारा जाय जो चुनावी मुकाबले को टी ट्वेंटी मैच की तरह आखिरी ओवर तक ले जा सके. आशय यह कि अंतिम राउंड की मतगणना तक टक्कर रहे. फिलहाल झामुमो में आस्तिक महतो, सुनील महतो मीता, मोहन कर्मकार और समाजसेवी फणींद्र महतो टिकट के दावेदार है. कुछ लोग पूर्व मंत्री दुलाल भुइयां का नाम भी उछाल रहे हैं. पूर्व डीआईजी राजीव रंजन सिंह, जिला परिषद के दो बार उपाध्यक्ष रह चुके राजकुमार सिंह जैसे बाहरी चेहरों की ताकत और कमजोरी का आकलन हो रहा है. जिला से लेकर केंद्रीय नेतृत्व जमशेदपुर लोकसभा सीट से जुड़े हर पहलु को देखने और समझने में लगा है.

कुड़मी राजनीति में आस्तिक का बड़ा नाम

आस्तिक महतो

कुड़मी राजनीति में आस्तिक महतो का बड़ा नाम है. कुड़मी बहुल इलाके की चुनावी फिजां को आस्तिक किसी भी ओर मोड़ने की हैसियत जरूर रखते हैं. जमशेदपुर की सामान्य आबादी (जनरल वोटर) भी उन्हें सकारात्मक नजरिए से देखता है. मतदान के वक्त झामुमो प्रत्याशी के नाते उन्हें वोट करेगा या नहीं, इस पर दावा नहीं किया जा सकता. कुड़मी को आदिवासी का दर्जा दिलाने की मांग पर लंबे समय से आंदोलन चल रहा है. इसमें आस्तिक महतो हमेशा मुखर रहे है. इस नाते आदिवासियों का एक तबका उनके प्रति तनिक खुन्नस भी रखता है. आदिवासी झामुमो के कोर वोटर हैं. विधायक मंगल कालिंदी और समीर मोहंती समेत झामुमो के नेताओं की लंबी जमात है जो आस्तिक को उम्मीदवार के तौर पर देखना चाहती है. सीएम चंपाई सोरेन उनके नाम पर रजामंद होंगे, यह अहम सवाल है.

सुनील की खासियत, नए और पुराने सबके मीता

सुनील महतो मीता

झामुमो के सदाबहार नेता हैं, सुनील महतो मीता. मीता इनका नाम नहीं है. राह में जो मिला, उसे मीत यानी दोस्त बना लेते हैं. इसलिए मीता उपनाम पड़ गया. राजनीति में यही इनकी ताकत है. जब झारखंड आंदोलन चरम पर था, तब किशोरावस्था में झामुमो की राजनीति में आए. 1989 में पोटका ब्लॉक अध्यक्ष बने. झारखंड बना तो जिला कार्यसमिति में थे. पांच बार जिला सचिव रहे. केंद्रीय सचिव भी. झारखंड आंदोलन के जमाने से अभी तक पंचायत से लेकर जिला स्तर के सभी नए पुराने कार्यकर्ताओं से ताल्लुक है. जो घर में बैठ गए है, उन्हें भी अपने नाम पर बाहर निकलने का हुनर है. सबसे बड़ी खासियत. कुड़माली, संथाली, बंगाली, उड़िया, भोजपुरी, हिन्दी, हर भाषा बोलने में दिक्कत नहीं. यही वजह है कि हरेक चुनाव में उनकी दावेदारी हल्के में नहीं ली जाती.

मोहन और फणींद्र की अपनी पहचान, दुलाल भी कमतर नहीं

मोहन कर्मकार झामुमो के पुराने नेता है. जिला बीस सूत्री कार्यक्रम कार्यान्वयन समिति के उपाध्यक्ष का दायित्व संभाल रहे हैं. लगातार झामुमो की केंद्रीय समिति में जगह पाते रहे है. सभी वरीय नेताओं से उनके बेहतर ताल्लुकात हैं. पंचायत स्तर पर जाने की राजनीति छोड़े लंबा अरसा गुजर चुका है. बावजूद इसके झामुमो के सारे कार्यकर्ता जानते और पहचानते हैं. सोनारी में रहते हैं, कार्यालय है. इस नाते शहरी इलाके में ठीक ठाक प्रभाव है. हां, जमशेदपुर पश्चिम विधानसभा सीट से चुनाव लड़ चुके है.

फणींद्र महतो

नतीजा उत्साहवर्धक भी नहीं रहा है. इस नाते उनकी दावेदारी पर झामुमो नेतृत्व को बारंबार विचार करना पड़ रहा है. उनके अलावा बिल्डर सह समाजसेवी फणींद्र महतो के नाम पर भी झामुमो के भीतर सुगबुगाहट चल रही है. एक तबका ऐसा है जो मान रहा है कि उन्हें मैदान में उतारा जाय तो मुकाबला तगड़ा हो जायेगा. आर्थिक तौर पर मजबूत हैं. शहीद निर्मल महतो के परिवार में रिश्तेदारी भी है. इस नाते भी कार्यकर्ताओं को उन्हें अपनाने में झिझक नहीं होगी.

दुलाल भुइयां

पूर्व मंत्री दुलाल भुइयां भी पुराने घर में वापस आ चुके है. किसी जमाने में पूरे कोल्हान प्रमंडल में झामुमो के इकलौते विधायक रहे हैं. कुछ लोग उनका भी नाम उछाल रहे हैं. मगर वे इस मसले पर खामोश हैं. इनके अलावा झामुमो नेतृत्व कुछ बाहरी चेहरों की तरफ भी देख रहा है. अगर आंकड़े सही दिखे तो उधर भी बातचीत शुरू हो सकती है, आगे बढ़ सकती है.

1989 में झामुमो को मिली थी पहली जीत

जमशेदपुर लोकसभा सीट से झामुमो को 1989 में पहली बार जीत मिली थी. चक्रधरपुर से आकर शैलेंद्र महतो सांसद बने थे. 1991 में फिर चुनाव हुआ था और शैलेंद्र महतो दोबारा जीते थे. इसके बाद भाजपा को लगातार विजयश्री मिलती रही. 2004 में यूपीए गठबंधन के तहत झामुमो ने फिर जीत का झंडा फहराया था और सुनील महतो सांसद बने थे. 2007 में सुनील महतो की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी. उप चुनाव हुआ तो सहानुभूति लहर में उनकी पत्नी सुमन महतो जीती थीं. इसके बाद झामुमो का चुनावी प्रदर्शन नीचे की ओर जाता रहा है.

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