चंपई सोरेन की आंखों में दो बार आंसू, घाटशिला में नहीं मिली सहानुभूति
कल्पना सोरेन ने फिर दिखाया कि उनमें जनता से सीधे संवाद की खास कला
सोमेश को सुनाया तराना, भोलापन तेरा भा गया सादगी पर तेरी मरते हैं
झामुमो की दूसरी पारी में कुणाल ने दिखाया, वे वफादार एवं असरदार भी
घाटशिला से निकली जनता की आवाज झारखंड में दूर तलक जाएगी
एस वंदना.
झारखंड में चुनाव हो तो झामुमो अध्यक्ष सह मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का जवाब नहीं है। घाटशिला के उप चुनाव का नतीजा सामने है। राजनीति से कोसों दूर रहे स्वर्गीय रामदास सोरेन के पुत्र सोमेश सोरेन ने पूर्व सीएम चंपई सोरेन के पुत्र बाबूलाल सोरेन को इतने बड़े अंतर से हराया है जो इतिहास बन गया। सोमेश की तरह बाबूलाल सोरेन राजनीति में नौसिखिया नहीं है बल्कि एक दशक से पूर्णतः सक्रिय हैं।
झारखंड का गठन होने के बाद हेमंत सोरेन सक्रिय राजनीति में आए। 2004 से उनकी सियासी सक्रियता शुरू हुई। पहला चुनाव दुमका से लड़े। हार गए। अगले चुनाव में वापसी की तो फिर पीछे मुड़ कर देखने की नौबत नहीं आई। वे कुछ उसी अंदाज में झारखंड में कोई भी चुनाव लड़ते है जैसे देश में पीएम नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह। घाटशिला में उप चुनाव था। झामुमो हार भी जाता तो सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। हेमंत सोरेन ने तरीके से राजनीतिक घेराबंदी की। सोमेश को तीन महीने पहले से चुनाव कार्य में जुट जाने का इशारा किया। चुनाव आयोग ने जैसे ही अधिसूचना निकाली, कैबिनेट मंत्री सुदिव्य सोनू को घाटशिला रवाना कर दिया। परिवहन मंत्री दीपक बिरुआ को सीधे घाटशिला में जम जाने का संदेश मिला। कोल्हान प्रमंडल के सभी सांसद और विधायक घाटशिला के रण में कूद पड़े।
गांव में खाट मिला तो ठीक। होटल में वातानुकूलित कमरा मिला तो बढ़िया। जैसा देश वैसा भेष। घाटशिला के चुनावी समर में गांडेय विधायक कल्पना सोरेन ने फिर साबित किया कि फिलहाल वे ही झामुमो की स्टार प्रचारक है। जनता से सीधे जुड़ने की उनमें अद्भुत कला है। संवाद का तरीका ऐसा कि कोई भी एकबारगी उनकी बातों में बहता चला जाय। घाटशिला से कल्पना सोरेन का मायका का गांव बहुत दूर नहीं है। लोगों के मन मिजाज के बारे में पहले से कुछ न कुछ वाकिफ रही है। सो, लोगों की भावनाओं और समझने और समझाने में उन्हें और आसानी हुई।ऐसा नहीं है कि भाजपाई दिग्गज घाटशिला नहीं आए। बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, रघुवर दास समेत अधिकतर दिग्गज आए। उनमें झामुमो के नेताओं वाली लगन नहीं दिखी। ठसक भरे अंदाज में राजनीति की, भाषण दिया, हेमंत सरकार को कोसने भर में अपनी ऊर्जा खर्च की और निकल गए।
बीते विधानसभा चुनाव में बाबूलाल सोरेन ही भाजपा उम्मीदवार थे। झामुमो ने यह छवि बनाई थी कि उनका अंदाज आक्रामक है। इसका उन्हें नुकसान भी हुआ और बाबूलाल सोरेन चुनाव हार गए थे। उप चुनाव की घोषणा हुई तो चंपई सोरेन खुद सियासी रण में आगे आए। बाबूलाल सोरेन उनके पीछे। मतदान के ठीक पहले बाबूलाल सोरेन की असलहों के साथ पूजा करते एक वीडियो वायरल हुआ। लंबे समय तक माओवादी हिंसा झेल चुकी घाटशिला की जनता को चौकन्ना होना था। हुई भी। नतीजतन, झारखंड बनने के बाद घाटशिला में सर्वाधिक मतों से जीतने का झामुमो नया रिकॉर्ड बन गया। 38 हजार से अधिक मतों से सोमेश सोरेन को विजयश्री मिली।
एक और अहम बात। सोमेश के लिए लोगों के रुझान का बड़ा कारण उनके भोलेपन का अंदाज भी रहा। तीन महीने पहले से चुनाव कार्य में लगे सोमेश हर उस जगह गए जहां से उन्हें बुलावा आया। बड़े बुजुर्ग दिखे तो पांव छूकर आशीर्वाद लेने में तनिक भी शर्मिंदगी नहीं। युवा दिखे तो उनके साथ खेल लिए। दुर्गा पूजा और छठ में गए तो सबके साथ उसी श्रद्धा भाव से पूजा अर्चना की। गांवों में गए तो ढोल नगाड़ा का आनंद लिया। शायद इसलिए भी घाटशिला ने तराना गाया, भोलापन तेरा भा गया सादगी पर तेरी मरते हैं।
भाजपा के लिए और दरक गया झारखंड का मजबूत किला
अविभाजित बिहार के जमाने से झारखंड का हिस्सा भाजपा का मजबूत किला रहा है। भाजपा न सिर्फ लगातार विधानसभा चुनाव हार रही है अपितु उसकी सीटें भी लगातार कम हो रही है। 2019 में हेमंत सोरेन के मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा एक भी उप चुनाव जीत नहीं पाई है। कभी भाजपा को भारत का सबसे सशक्त विपक्षी पार्टी माना जाता था। अब भाजपाई हेमंत सरकार की विफलता को कायदे से जनता को समझा नहीं पा रहे है। ऐसा तब है जब भाजपा में पांच पूर्व सीएम हैं; बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, मधु कोड़ा, रघुवर दास और चंपई सोरेन। झारखंड में विरोधी दल के नाते भाजपा के शीर्ष नेता बंद कमरे में प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं, सोशल मीडिया पर भड़ास निकालते हैं।
जनता के मसले पर सड़को पर भाजपा कार्यकर्ता अब शायद ही नजर आए। घाटशिला में भाजपा की करारी हार से संदेश गया है कि झारखंड में भाजपाई सियासत का किला अब और दरक गया है। उसकी एक बांदलगी। घाटशिला में भाजपाई गए तो महिलाओं ने मईया सम्मान योजना से उन्हें नहीं जोड़ने की शिकायत की। भाजपाई खुद ब खुद मान लिए कि उन महिलाओं का मन कमल में जाएगा। कल्पना सोरेन घाटशिला आई तो समझाई कि हेमंत सरकार सबके साथ न्याय करेगी। जिनके नाम छूट गए हैं, उन्हें जोड़ा जाएगा, सम्मान राशि भी मिलेगी। भाजपाइयों को अंदाजा भी नहीं हुआ कि खेल पलट गया है।
संसदीय राजनीति में बाबूलाल का आना अब और मुश्किल
बाबूलाल सोरेन ने राजनीति में कदम रखा था तो उनके लिए फूलों का सेज बिछता गया। झामुमो से उनकी सियासत की शुरुआत हुई। सक्रिय कार्यकर्ता से सीधे केंद्रीय महासचिव की कुर्सी मिल गई। पिता चंपई कैबिनेट मंत्री, फिर मुख्यमंत्री बन गए। बाबूलाल सोरेन को 2024 के विधानसभा चुनाव में बड़ा मौका मिला। भाजपा ने उन्हें संथाल बहुत घाटशिला विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाया। मिथुन चक्रवर्ती ने भी उनका प्रचार किया। रामदास सोरेन से हार गए। उप चुनाव आया तो पिता चंपई सोरेन ने पूरी ताकत झोंक दी। फिर बाबूलाल हार गए। लगातार दो चुनावों में हार के बाद वापसी स्वाभाविक तौर पर बहुत मुश्किल है। टिकट पाने के लिए जद्दोजहद ज्यादा होगी तो जनता को यकीन दिलाना भी कठिन होगा कि वे जीत भी सकते हैं।
चंपई सोरेन को नए सिरे से निखारनी होगी अपनी राजनीति
झारखंड के विधानसभा चुनाव के पहले चंपई सोरेन ने भाजपा का झंडा उठाया था तो उनका जोरदार इस्तकबाल किया गया था। पीएम नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने उन्हें भरपूर सम्मान दिया। सार्वजनिक मंचों पर चंपई को विशेष अहसास कराया गया। चंपई भाजपा के इकलौते ऐसे चेहरा रहे तो अनुसूचित जनजाति की सीट से चुने गए। शायद यही वजह रही कि रामदास सोरेन के निधन के बाद घाटशिला में उप चुनाव की नौबत आई तो उनके पुत्र बाबूलाल सोरेन को सहजता से भाजपा का टिकट मिल गया। चंपई ने चुनाव प्रचार के दौरान हेमंत सोरेन द्वारा अपमानित किए जाने का मसला उठाया। उनकी आंखों से आंसू भी छलक गए। जनता पर असर नहीं पड़ा। जाहिर है, अब चंपई सोरेन को नए सिरे से अपनी राजनीति को निखारना होगा।
कोल्हान की सियासत में उभर कर सामने आए दीपक बिरुआ
स्वर्गीय शिबू सोरेन के बेहद विश्वसनीय होने के नाते दशकों तक कोल्हान प्रमंडल में झामुमो की कमान चंपई सोरेन संभालते रहे। 2019 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले वे भाजपा में चले गए तो कोल्हान को बचाए और बनाए रखने के लिए हेमंत सोरेन को खूब मशक्कत करनी पड़ी। हेमंत सोरेन ने कभी चंपई सोरेन के करीबी रहे परिवहन मंत्री दीपक बिरुआ को घाटशिला उप चुनाव की जवाबदेही दी। चंपई ने सीएम रहते दीपक बिरुआ को मंत्रिमंडल में पहली बार जगह दी थी।जुगसलाई विधायक मंगल कालिंदी और बहरागोड़ा के एमएलए समीर मोहंती भी कभी चंपई के नजदीकी नेताओं में शुमार थे। उन्हें भी चंपई पुत्र के खिलाफ लगाया गया। हिदायत खान और राजू गिरी को भी झोंका गया। जो कभी चंपई के विश्वस्त थे, वही उन्हें घाटशिला में घेरने में लग गए। आलम यह था कि पूरे उप चुनाव के दौरान बूढ़े चंपई सोरेन की मेहनत देख सब चकित रह गए। चंपई ने सब कुछ झोंक दिया। मगर उनके हर दांव को पहले से जानने और समझने वालों ने एक न चलने दी।
सोमेश सोरेन ने संदेश दिया कि वे लंबी रेस के खिलाड़ी
सोमेश सोरेन। महज कुछ महीने पहले तक यह नाम पूर्वी सिंहभूम जिला में शायद ही कोई जानता होगा। घोड़ाबांधा में स्वर्गीय रामदास सोरेन का आवास है। वहीं के कुछ लोग सोमेश से परिचित थे। सियासत से प्रत्यक्ष तौर पर सोमेश का दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं था। रामदास सोरेन न सिर्फ राजनीति से अपने बच्चों को दूर रखे हुए थे अपितु परदे के पीछे से भी उनकी कोई संतान राजनीतिक विषयों में नहीं पड़ती थी। रामदास सोरेन का अचानक निधन हुआ तो एकबरगी सब सोचने लग गए थे कि अब उनके परिवार के सियासत में वापसी आसान नहीं होगी। रामदास सोरेन की पत्नी ने तय किया कि बेटा सोमेश उनके पति की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाएगा। सीएम हेमंत सोरेन का पूरा साथ मिला। किसी जनप्रतिनिधि का निधन होने पर हेमंत सोरेन उनके उत्तराधिकारी को कैबिनेट मंत्री बना रहे थे। फिर विधायक बनने के लिए चुनाव मैदान में उतार रहे थे। रोचक यह है कि रामदास सोरेन के निधन के बाद उन्होंने ऐसा नहीं किया। पता था कि घाटशिला में चंपई सोरेन से फिर पाला पड़ सकता है। इसके बावजूद उन्होंने सोमेश को अपने बुद्धि और विवेक से आगे बढ़ने को प्रेरित किया। साधारण युवा की जिंदगी जीने वाले सोमेश ने सधे कदम से बढ़ना शुरू किया। कुछ महीनों के भीतर घाटशिला की जनता को यह संदेश देने में कामयाब रहे कि उन्हें मौका मिला तो अमन कायम रहेगा, विकास आगे बढ़ेगा, परंपरा के साथ आधुनिक सोच का समागम देखने को मिलेगा।
सुदेश को संदेश मिला कि जल्द कुछ नहीं किया तो और बढ़ता जाएगा खतरा
घाटशिला के चुनाव परिणाम ने आजसू पार्टी के मुखिया सुदेश महतो को बाखबर किया है। आजसू पार्टी का मूल आधार कुड़मी वोट बैंक रहा है। सुदेश महतो ने कभी अतिवाद की राजनीति नहीं की है। इसलिए दूसरे सामाजिक समूह भी चुनावी परिस्थितियों के लिहाज से आजसू पार्टी से जुड़ते रहे हैं। सुदेश महतो और हेमंत सोरेन की चुनावी राजनीति का समान पहलू यह भी है कि दोनों विधानसभा या लोकसभा सीट के लिए ऐसे उम्मीदवार को ज्यादा तवज्जो देते है जिनका वहां की सियासी जमीन पर अपना आधार भी हो।
खैर, अब सुदेश महतो को जयराम महतो और उनकी पार्टी से कड़ी टक्कर मिल रही है। कुड़मी युवाओं को कुछ उसी तरह आकर्षित कर रहे है, जिस तरह शुरुआती दौर में सुदेश करते थे। घाटशिला में जयराम महतो की पार्टी के उम्मीदवार रामदास मुर्मू को पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले तीन हजार ज्यादा मत मिले है। 8 हजार से बढ़ कर 11 हजार की छलांग। रामदास मुर्मू का गृह क्षेत्र गालूडीह है। पिछली बार उसी इलाके से अधिकतर मत मिले थे। इस बार विधानसभा क्षेत्र के और इलाके से भी मत पाने में वे कामयाब हुए है। आशय यह कि जयराम की पार्टी का असर कुछ बढ़ा ही है, घटा नहीं। बीते विधानसभा चुनाव में जयराम ने सुदेश महतो को गहरा दर्द दिया है। दर्द और बढ़ता न जाय, इसका इंतजाम तो खुद सुदेश को करना होगा। वह भी तुरंत।
भाजपा के लिए कभी उर्वरा जमीन नहीं रहा घाटशिला
घाटशिला विधानसभा क्षेत्र की राजनीतिक जमीन कभी भी भाजपा के लिए उर्वरा नहीं रही है। अगर चुनावी इतिहास के पन्ने पलटे जाय तो यहां सिर्फ एक बार कमल खिला है। झारखंड आंदोलनकारी लक्ष्मण टुडू ही भाजपा विधायक बन सके है। न उनसे पहले कभी कमल खिला, न उसके बाद। झारखंड की राजनीति को नजदीक से समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी रघुवंशी बताते है, घाटशिला कभी वाम गढ़ होता था। फिर लंबे समय तक कांग्रेस का अभेद किला रहा। रामदास सोरेन की व्यक्तिगत उपलब्धि रही जो उन्होंने घाटशिला को झामुमो का दुर्ग बना दिया। उन्होंने पहली बार यूपीए गठबंधन के घातक दल कांग्रेस के खिलाफ निर्दल चुनाव लड़ा था। 30 हजार से अधिक मत पाकर उन्होंने कांग्रेस को भीतर से हिला दिया था। अश्विनी रघुवंशी बताते है कि ट्रेड यूनियन की राजनीति करते हुए प्रदीप बालमुचू ने घाटशिला में सक्रियता बढ़ाई थी। उस वक्त ऐसा लगता था कि यहां झामुमो का भविष्य हो ही नहीं सकता। यूपीए गठबंधन में कांग्रेस और झामुमो साथी भी थे। इसके बावजूद रामदास सोरेन ने अपने और झामुमो के लिए राह बना ली। भाजपा भी ऐसा कर सकती है, मगर उसके लिए अदम्य समर्पण और मेहनत की जरूरत होगी। राजनीतिक मामलों की गहरी समझ रखने वाले अश्विनी रघुवंशी के मुताबिक निकट भविष्य में झारखंड में विधानसभा सीटों का परिसीमन होना है। मधु कोड़ा के सीएम रहते परिसीमन को आगे बढ़ाया गया था। अब शायद ही परिसीमन को टाला जा सके। संभव है कि यह चुनाव एक इतिहास बन जाय।
